गुल्लक

मैंने भी गुल्लक भर-भर के,
ख़्वाब कई देखे थे।
कई दफ़ा फिर झाँक-झाँक कर,
सिक्के ख़ूब गिने थे॥

वही बेचारी गुल्लक मेरी,
याद मुझे करती है।
बचपन के सिक्के मेरे,
महफूज़ अभी रखती है॥

जोड़-जोड़ कर सिक्के मैं भी,
जूते लूँगा मर्ज़ी से।
नई-नई पोशाकें मैं फिर,
सिलवाऊँगा दर्जी से॥

सोचा मैंने ये भी था,
कि जब गुल्लक भर लूँगा।
तोड़ के गुल्लक; पूरे अपने
शौक सभी कर लूँगा॥

छोटी-सी वो गुल्लक मेरी,
कभी न मैं भर पाया।
धीरे-धीरे उम्र हुई,
बचपन ने छोड़ा साया॥

आज भी मेरी छोटी गुल्लक,
अलमारी में रहती है।
अपना बचपन मुझको दे दो,
इतना मुझसे कहती है॥

‘भोर’ यही रीति है जग में,
बचपन ढल ही जाना है।
तब गुल्लक भर ही काफ़ी था,
अब क़िस्सा यही पुराना है॥

©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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