"स्त्री"
खिलखिलाया करती थी वो भी, अपने आँगन में मगर
ना जाने वो खिलखिलाहट, कब मुस्कान बन रह गए।
देखना चाहती थी वो भी, पूरी दुनिया मगर
ना जाने चार दीवारें, कब उसकी दुनिया बन गए।
अरमाँ तो थे उसके भी, हज़ारों मगर
ना जाने अपनों के अरमाँ, कब उसकी खुशियां बन गए।
कहना तो था उसे भी, बहुत कुछ मगर
ना जाने वो सबकी, कब सुनना सीख गयी।
उदास तो वो भी, हुआ करती थी मगर
ना जाने वो ग़मों को, कब छुपाना सीख गयी।
साथ तो उसे भी, चाहिए था मगर
ना जाने वो औरों का, कब सहारा बन गयी।
गिर कर तो वो भी रोई थी, बचपन में मगर
ना जाने वो बड़े घाव, कब सह गयी।
बचपना तो था, उसमे भी मगर
ना जाने वो रूप, कब ममता का बन गयी।
समझ ना सकी, ए दुनिया तू मगर
ना जाने वो, कब "स्त्री" नामक कृति बन गयी।
By Pratiksha Dubey
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